"रात के मेहमान"
रात लगभग 12:15 का समय था। बाहर बारिश की हल्की-हल्की बूंदें खिड़की के शीशे से टकराकर अजीब सी आवाज़ कर रही थीं। शेखर अपने लैपटॉप पर कोई वेब सीरीज़ देख रहा था, तभी अचानक उसके फोन की घंटी बजी। नंबर अनजान था।
"इतनी रात को कौन कॉल कर रहा है?" उसने बड़बड़ाते हुए फोन उठाया।
"मैं तुम्हारे दरवाज़े पर हूँ," दूसरी तरफ से धीमी और भारी आवाज़ आई।
शेखर की आँखें चौड़ी हो गईं। "कौन?" उसने पूछा।
"बस… मिलना था," वही आवाज़ फिर गूंजी।
शेखर ने डर और शक के बीच खिड़की से बाहर झांका। गली सुनसान थी, स्ट्रीट लाइट की रोशनी में बस पानी की बूंदें चमक रही थीं। कोई नहीं दिखा। वह वापस अपनी कुर्सी पर बैठा ही था कि दरवाज़े पर ज़ोर की खटखट हुई।
"कौन है?" उसने ऊँची आवाज़ में पूछा।
कोई जवाब नहीं आया।
कुछ पल की खामोशी के बाद उसके मोबाइल पर मैसेज आया – "मैं अंदर हूँ।"
शेखर का गला सूख गया। वह धीरे-धीरे किचन की तरफ बढ़ा, जहाँ से अभी-अभी चम्मच गिरने की आवाज़ आई थी। किचन का दरवाज़ा आधा खुला था। अंदर झांककर देखा – सब खाली। बस फर्श पर एक चम्मच पड़ी थी।
उलझन में वह पीछे मुड़ा और जम गया…
पीछे एक लंबा आदमी खड़ा था, रेनकोट पहने हुए। उसके हाथ में कुछ था…
शेखर की नज़र उस रेनकोट पहने आदमी पर टिकी थी। आदमी बिल्कुल हिल नहीं रहा था, बस धीरे-धीरे अपना हाथ उठाकर बोला,
"भाई… ये तुम्हारा चम्मच गिरा था।"
शेखर को समझ नहीं आया कि डरना है या हँसना।
"तुम… अंदर कैसे आए?" उसने काँपते हुए पूछा।
आदमी ने हौले से कहा, "तुम्हारा दरवाज़ा तो खुला था।"
शेखर के दिमाग में घंटी बजी – "अरे हाँ! मैंने तो डिलीवरी बॉय के बाद लॉक ही नहीं किया था!"
वह कुछ बोल पाता, उससे पहले आदमी ने रेनकोट की जेब से कुछ निकाला।
शेखर का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा… और फिर…
वो निकला… एक समोसे का पैकेट।
"भाई, मैं सामने वाली दुकान में काम करता हूँ। बारिश में समोसे ठंडे हो गए, तो सोचा पड़ोसी को दे दूँ," उसने मासूमियत से कहा।
शेखर ने राहत की साँस ली, लेकिन फिर शक से पूछा,
"लेकिन… तुमने फोन क्यों किया और वो डरावनी आवाज़ में?"
आदमी ने हँसते हुए जवाब दिया,
"क्योंकि… मेरी नाक बंद है, सर्दी हो गई है… और मोबाइल का नेटवर्क भी खराब था!"
शेखर ने समोसे का पैकेट टेबल पर रखा और पानी लेने किचन में गया।
वह अभी गिलास में पानी भर ही रहा था कि लाइट्स अचानक टिमटिमाईं और चली गईं।
"अरे यार… ये भी अभी जाना था!" शेखर बड़बड़ाया।
बाहर बारिश और तेज़ हो गई थी। खिड़कियों पर पानी की बूंदें धम-धम टकरा रही थीं।
उसे लगा, कहीं UPS ऑन कर दे, तभी पीछे से फिर आवाज़ आई –
"शेखर… मैं वापस आ गया।"
उसके हाथ से गिलास गिर गया।
वह धीरे-धीरे पीछे मुड़ा… लेकिन वहाँ कोई नहीं था।
तभी मोबाइल की टॉर्च ऑन करके उसने हॉल में झांका…
और देखा – समोसे का पैकेट फर्श पर खुला पड़ा है… और आधा खाली।
शेखर की रीढ़ में सिहरन दौड़ गई।
"ये आधा किसने खाया?"
अचानक, सोफे के पीछे से किसी का सिर झांकता दिखाई दिया –
बिखरे बाल, बड़ी-बड़ी आँखें…
शेखर चिल्लाया – "कौन है!"
और तभी वो "साया" खड़ा हो गया –
पता चला, वो उसका पड़ोसी पप्पू था, जो चुपके से घर में आकर समोसे खा रहा था।
"भाई… बारिश में दुकान बंद थी, भूख लगी थी… और समोसे की खुशबू ने खींच लिया," पप्पू बोला।
शेखर ने माथा पकड़ा, "तू दरवाज़े से आता ना…?"
पप्पू बोला – "आता, लेकिन तू टीवी पर हॉरर मूवी देख रहा था, तो मैंने सोचा थोड़ा माहौल बना दूँ।"
शेखर और पप्पू दोनों सोफे पर बैठे समोसे खत्म कर रहे थे।
बाहर बारिश थम चुकी थी, लेकिन घर के अंदर अजीब सी खामोशी छाई हुई थी।
पप्पू बोला, "भाई, तूने नोटिस किया… समोसे तीन थे, हम दोनों ने दो-दो खा लिए… लेकिन एक समोसा कहाँ गया?"
शेखर ने हंसते हुए कहा, "शायद तूने ही खा लिया होगा और भूल गया।"
पप्पू ने सिर हिलाया, "नहीं भाई, मुझे याद है… और देख, ये प्लेट पर जो टुकड़े हैं, वो किसी ने अभी-अभी खाए हैं।"
दोनों ने एक-दूसरे को देखा।
अचानक रसोई से बर्तन गिरने की तेज़ आवाज आई।
"फिर से?" शेखर ने घबराकर कहा।
पप्पू ने मोबाइल की टॉर्च ऑन की और किचन की तरफ बढ़ा।
जैसे ही उन्होंने अंदर झांका,
फ्रिज का दरवाज़ा खुला था… और अंदर से कोई चबाने की आवाज आ रही थी।
पप्पू ने हिम्मत करके टॉर्च अंदर मारी –
एक लंबी दाढ़ी वाला, गीले कपड़ों में अजनबी, आलू की सब्जी खा रहा था!
शेखर चीखा, "तू कौन है भाई?"
अजनबी ने आराम से मुँह साफ किया और बोला,
"मैं… तीसरे मंज़िल का रमेश हूँ। बारिश में लिफ्ट खराब हो गई, तो सोचा पहले यहाँ खा लूँ, फिर ऊपर जाऊँगा।"
पप्पू और शेखर ने एक-दूसरे को देखा और हँस पड़े।
लेकिन तभी रमेश ने धीरे से कहा,
"वैसे… मैं अकेला नहीं आया हूँ।"
रमेश के ये कहने पर — "वैसे… मैं अकेला नहीं आया हूँ" —
शेखर और पप्पू दोनों ने एक साथ पूछा, "तो और कौन है?"
रमेश मुस्कुराया, "बस… मेरे दोस्त हैं, थोड़ी देर में आते होंगे।"
तभी दरवाज़े पर तीन जोर की खटखट हुई।
पप्पू ने घबराकर पूछा, "अब और मेहमान?"
रमेश ने कहा, "हाँ, लेकिन डरना मत।"
शेखर ने धीरे-धीरे दरवाज़ा खोला…
और अंदर आए — दो और लोग, हाथ में गिटार और तबला लिए।
"हम लोग रमेश के साथ बैंड में हैं," एक बोला, "सोचा बारिश की रात में लाइव म्यूज़िक करके माहौल बना दें।"
पप्पू और शेखर हैरान खड़े रहे।
रमेश ने बिना रुके बोला, "और हाँ… हमारे ड्रमर साहब भी आ रहे हैं, लेकिन वो थोड़े अजीब हैं…"
तभी किचन से फिर आवाज आई — ढम-ढम-ढम!
सभी भागकर अंदर गए, और देखा —
ड्रमर नहीं, बल्कि शेखर की बिल्ली बर्तन बजा रही थी… और साथ में बचे हुए समोसे खा रही थी।
सारी टेंशन और सस्पेंस यहीं खत्म हो गया।
सब हँसने लगे, और पप्पू बोला,
"भाई, अगली बार हॉरर मूवी के साथ समोसे का कॉम्बो मत मंगाना… कहानी अपने-आप कॉमेडी बन जाती है!"
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